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मुश्किल है घर बनाना.... 

सुरेंद्र सैनी बवानीवाल स्वरचित मौलिक रचना.  आसान नहीं लगता शहर में घर बसाना.  दौर है पेचीदा किसी को अपना बनाना.  कई लोग दोस्त होने का दम भरते है,  होता नहीं मुझसे किसे, हाल-ए-दिल सुनाना.  रात के अंबर में कितना कुछ समाया है,  कैसे मुमकिन होगा तारों से आगे देख पाना.  मेरी कुछ ज़िम्मेदारियाँ मुकम्मल नहीं हुई,  मेरी हज़ार कमियाँ देखता है ज़माना.  कुछ रकीबों को मेरी आवाज़ पसंद नहीं,  वरना तो चाहता हूँ मैं भी कुछ गुनगुनाना.  जब भी देखता हूँ किसी मज़लूम को रोते,  नहीं हो पाता मुझसे खुशियाँ मनाना.  ग़म तो अपनी ज़िन्दगी का लाख हिस्सा है,  "उड़ता "मैं नहीं भूलता हर हाल मुस्कुराना

मंजर तबाही का दिखेगा सोचा  भी  ना था

डॉ बीना सिंह दुर्ग छत्तीसगढ़ मौसम ऐसा बदलेगा कभी सोचा भी ना था मंजर तबाही का दिखेगा सोचा  भी  ना था कहां एक दूजे को खत्म करने में लगे थे कुदरत ऐसा कर डालेगा सोचा भी ना था उजड़ बिखर जाएगी इस  तरह  जिंदगी लाशों का ढेर जैसे इंसा  सोचा भी ना था नादान पाक बन सजदा कर रहे हैं सभी  दुआएं  नसीब ना होगी  सोचा  भी ना था सजाए दर्द-ए-ग़म अब तो सहना ही होगा सजा-ए-मौत  इस कदर  सोचा भी ना था

दोस्त..

डॉ इला रंजन इन्द्रधनुष इस तेज रफ्तार की दुनिया में कभी-कभी क्यों लगता हमें कि हम दुनिया से बहुत पीछे हैं और बिना खास उद्देश्य के जी रहे जीवन में कुछ कर ही नहीं पाये, क्यों कभी-कभी लगता मेरा होना उतना जरूरी नही जितना हम समझते, क्या खोया हमने,और क्या पाया? जैसे अनेको सुलझे और अनसुलझे, सवालों से घिरी खड़ी हूँ! निरुत्तर पर दोस्ती के रिश्ते ने थामकर मुझे, मेरे सवालों का जैसे जबाब दे दिया..!!

रख चरागों में..... 

सुरेंद्र सैनी बवानीवाल सारा शहर डूब गया अभागों में.  अब रोशनी नहीं झलकती चरागों में.  गुथियों -पहेलियों में उलझे हैं लोग,  गांठ पड़ गयी है धागों में.  वफादारी को सरेआम बिकते देखा,  नाम किसका लें परागों ^में.  (उदाहरण ) ना जाने क्या छिपा वक़्त के दरागों ^ में. (अजगर ) "उड़ता "हौसला -उम्मीद रख चरागों में. 

गुजरा जो अतीत...

सुरेंद्र सैनी बवानीवाल एक सबब.....  गुजरा जो अतीत  जी रहा अब  हुई है सुबह  बदली है शब  कहीं मन शांत है  जो हिलोरता था तब  कुछ उमस तो है  छायेगा मौसम कब  कहीं कुछ छूटा है  वो आया है जब  हालात सभी के अपने  अपना जीने का ढब  टुटा नहीं ज़मीर  है यहाँ हौसलों का हब  तुम लफ्ज़ उकेरते "उड़ता ",  जीने का देते सबब. 

कुछ सर्द.... 

सुरेंद्र सैनी बवानीवाल कहीं हुआ है ह्रदय वृहद्.  छोटी ओछी हरकतों से,  होता है दुख बेहद.  दुश्मन अकसर सीजफायर से,  पार कर रहा हद.  जवान हमारे तैनात है,  नहीं सूनी रही सरहद.  कुछ नेता उनसे मिले हुए,  चाहे जनता हो दहशतगर्द.  उनकी राजनीति चमक उठी,  ना देखा कश्मीर का दर्द.  हालात ने बेघर कर दिया,  हुई रातें बहुत ही सर्द.  कितने लोग बर्बाद हुए,  देगा कौन हिसाब -ए-फर्द.  कुछ बातें अपने हाथ नहीं "उड़ता ",  ना टूटने दो विचारों का संसर्ग. 

होके नासाज़ मेरे पंख कतरना मत..

सुरेंद्र सैनी बवानीवाल बदलना मत....  मेरी किसी बात पर उछलना मत.  कभी जरुरत पड़े तो बदलना मत.  तेरे आगोश की कबसे तमन्ना है,  बाँहों में आओ तो संभलना मत.  जनता हूँ तुझे मैं इतना पसंद नहीं,  बस तू कभी मेरे साथ अकड़ना मत.  तुझे मैंने चाहा सदा हमसाया बनकर,  साथ रहना, बेशक़ हाथ पकड़ना मत.  तुम्हारे साथ ख़्वाब में मचलता हूँ,  लेकिन तुम, मेरी नींद जकड़ना मत.  कितना, कबसे दौड़ रहे हो "उड़ता ",  होके नासाज़ मेरे पंख कतरना मत.    

इस रंगे शरीर पर अब कोई

मेरे कान्हा के रंग में डॉ इला रंजन राधा से रूठकर गोपियों ने उसे उलाहना देते हुए कहा इतने रंगो से सराबोर किया फिर कोई भी रंग तुझ पर क्यों कर नहीं चढ़ रहा राधा हँसकर राधा ने उनसे कहा रंगो से रंग कर रंगीन करना व्यर्थ है तुम्हारा मेरी सहेली इस रंगे शरीर पर अब कोई रंग कभी चढ़ ही नहीं सकता क्योंकि मेरी आत्मा तक रंग चुकी है मेरे कान्हा के रंग में.!!

फैल गया है कोरोना?

सुरेंद्र सैनी बवानीवाल भयभीत हुआ है हर कोना.  शुरू हुआ रोना -धोना.  जाने क्या रंग दिखलायेगा  फैल गया है कोरोना.  शाकाहार में शामिल होना.  मांसाहार से दूर होना.  सादगी से संभव है.  फैल गया है कोरोना.  दूर करो हर विकारों ना,  कोई उपचार विचारो ना.  साफ -सफाई का ध्यान रखो,  फैल गया है कोरोना.  किसी से ना हाथ मिलाना,  कहीं भीड़ में ना जाना.  मास्क लगाना जरुरी है,  फैल गया है कोरोना.  प्याज़ और लहसुन का सेवन,  तुलसी -अदरक रखो डे-वन.  "उड़ता "बचाव की बात कहो ना,  फैल गया है कोरोना.   

तहज़ीब से रिश्ता निभाना

क्या ठीक है. सुरेंद्र सैनी बवानीवाल महबूब को हाल-ए-दिल सुनाना ठीक है.  अपने दिल की आरज़ू बताना ठीक है.  वैसे तो उसकी खातिर हाज़िर है जान,  लेकिन उसे प्यार में, सताना ठीक है.  राह चलते-चलते आँखे चार हो गयी,  यूं उसका मुझे देख लज़ाना ठीक है.  बिन मिले उससे, दिल मेरा लगता नहीं,  क्यों अंदर ख़्वाहिश को दबाना ठीक है.  मेरे सामने आकर खामोश हो जाना,  और मेरे बाद, बातें बनाना ठीक है.  नज़र को बचाकर रुमाल नीचे गिरा दिया,  अदा से उनका,  झुककर उठाना ठीक है.  एहसास का बंधन तुमसे जुड़ गया "उड़ता ",  तेरा तहज़ीब से रिश्ता निभाना ठीक है..            

करोना करोना करोना

डॉ बीना सिंह दुर्ग, छत्तीसगढ़ हां तुम करोना हो हां तुम करोना हो  हां हां तुम ही करोना हो मेरे देश का नहीं किसी और देश का सपना सुंदर सलोना हो हम तो  वैदिक सनातन संस्कृति मर्यादा के पक्षधर हैं पूजा इबादत भजन कीर्तन मंत्र में अग्रसर हैं और तुम विदेशी माहौल में पलने वाले खतरनाक विषधर नमूना हो हम हाथ जोड़ शीश झुका कर दूर से ही करते हैं अभिनंदन नहीं करते हाथ मिला कर एक  दूजे के  गालो का चुंबन तुम जान से खेलने वाले एक कातिल खिलौना हो हमारे जमीन पर चांद सूरज सर्दी गर्मी वर्षा सभी तशरीफ लाते हैं घर-घर नित्य धूप दीप नैवेद्य लोहबान जलाए जाते हैं तुम सर्दी ठंडी में पनपने वाले जिव एक घिनौना हो चैन ओ सुकून नहीं मौत के नींद में सुलाने वाले बिछोना हो हां तुम करोना हो हां तुम करोना हो

छलकाया था जाम कुछ पल. 

फलसफा गया... सुरेंद्र सैनी बवानीवाल एैसे ही निकलता गया,  ये ज़िन्दगी का फलसफा.  कुछ मिल गया,  कुछ छूट गया.  कोई दोस्त बना,  कोई रूठ गया.  सोचा कोई खास बना हमारा.  रंग लाएगा एहसास हमारा.  मगर कोई धागा टूट गया.  कोई मेरी आँखों से दूर गया.  मैं संभाल ना सका जन्नत अपनी,  कोई दर से होके मज़बूर गया.  छलकाया था जाम कुछ पल.  जाने कैसे काफूर -ए -सुरूर गया.  था एक बंद अनार,  हल्की सी चोट से फूट गया.  ये ज़िन्दगी का फलसफा "उड़ता ",  क्यों होकर मगरूर गया. 

व्यक्ति की इच्छा बोलती

इन्द्रधनुष डॉ इला रंजन जिंदगी का फलसफा निरन्तर बदलता रहता है.. व्यक्ति की इच्छा बोलती नहीं कुछ घुटती रहती सदा.. मन का कोई कोना झाँककर सो जाता.. अपनी बारी की प्रतीक्षा में...!!!

होली... रंग प्यार का 

होली... रंग प्यार का  सुरेंद्र सैनी बवानीवाल पिया से बोली प्रियतम  सुनो, आज होली है  मुझपर भी रंग खुमार का  प्रेम वशीभूत अबरार का  ना करना मौका तकरार का  मेरा लगाव सरोबार का.  मुझपर अपना चढ़ा दो रंग  नहीं होता इंतज़ार का.  एक रंग प्यार का  एक रंग दुलार का  एक रंग प्रेमाधार का  भावनामयी अज़ार  का प्रेम भावना  एहसासरत गुणागार का बंधन  मेरे इस धड़कते दिल में  फैले से सभागार का  एक रंग चढ़ा दो मुझपर  उस मुस्कुराते अनार का  सौन्दर्यमयी मीनार का  मेरे आँगन में चनार का  खिलते यौवन कचनार का.  प्रियतम ने अपनी बाहें खोली  पेड़ हो ज्यों गुलनार का  कहने लगा "तुम जीवन हो मेरा  मेरे प्रेम भरे अम्बार का".  मेरा प्यार तो निश्छल है,  ये मोहताज़ नहीं अबरार का.  तुम्हें देख रूह खिलती है "उड़ता ",  यही है रंग मेरे प्यार का. 

सतरंगी रंगो की होली..

होली  हंसराज तिवारी  लाल रंग है गालों के लिए तो पीला है हाँथो के लिए..! काला है बालों के लिए रंग हरा है जीवन के लिए..!! सतरंगी रंगो की होली सभी के मन में खुशी है डोली..!!!

भाभी और एक माँ!

मैं अब बदल गयी.. *इन्द्रधनुष* डॉ इला रंजन* तुम कहते हो मैं अब बदल गयी हूँ कहते हो मुझसे पुन: बदल जाने को..! चाह कर भी ऐसा हो ही नही सकता तुमने तो देखा था बेटी, बहन, प्रेमिका और  एक सहपाठीनी को..! पर पाया तुमने अब  एक पत्नी, बहू, भाभी और एक माँ..! फिर मैं पहले सी कैसे हो सकती हूँ सोचो तुम फिर एक बार मेरे लिए..!    

चाहे कितने भी उतार-चढाव आए. 

यूं ही हमकदम...  सुरेंद्र सैनी बवानीवाल हम चले तुम चले दो कदम,  बन गए हमकदम.  अपना मीलों का याराना.  रास्तों में कई पहाड़ आए,  कुछ पेड़, पक्षी और बाग आए.  हम चलते रहे निरंतर,  चाहे कितने भी उतार -चढाव आए.  जीवन में क्या बचा,  यह सवाल नहीं.  हर पल अभी तक कैसे जिया,  ये मिसाल है.  हमें नहीं लगता राहें कठिन थी.  बस चलने का अंदाज़ अलग था. लोगों ने कुछ ना कुछ बोला,  लेकिन अपने विवेक से काम लिया. और इसी गुफ़्तगू में,  गुजर गयी आधी ज़िन्दगी.  चलते हमकदम संग सनम,  "उड़ता "अच्छा बीता यह जनम .  

अनुभूति 

अंधकार ये, कभी ना हिस्से आया रेनू अग्रवाल  सुख में लिप्त रहा जीवनभर, संतान न कोई पाया । कष्ट अग्नि में निखरता, सोनाये भाव समझ न पाया । । साधना सुविधा मीनारे, रेशम में लिपटा । किरणों में खूब नहाया, अवसाद आभाव । । अंधकार ये, कभी ना हिस्से आया । आज मगर विचलित हूं, जीवन के मर्म में । । अनभिज्ञ रह गया, पीड़ाओं के सागर में । खुद को अनुभवहीन, हीन ही पाया । । सुरत सारे सब बौने, मूलहीन हो गये । आंधियारे उजियारे का फर्क, समझ न पाया । । अंधियारी रातो के बाद, जब भोर न उजरी आई । सुख सारे रसहीन हो गये, जब तृणा भाव न आया । । संघर्ष भी हो जीवन में स्वयं को, परख कसौटी पाया । तप कर निखरे मानव जीवन, और भी सुन्दर पाया । ।    

कोई कोशिश ना हुई सरकार की

आदतें बन गयी सदाचार की सुरेंद्र सैनी बवानीवाल  संस्कार की बात करते-करते  दुनियादारी में चलते-चलते  हम भूल गए बाकी सरोकार की  बातें करना अधिकार की.  दायित्वों में दबे हुए जिम्मेदारिओं को ढ़ोते हुए आदतें छूट रही व्यवहार की.  हमारी बेबसी का आलम एैसा रहा  कोई कोशिश ना हुई सरकार की  अपने बारे में खुद सोचना होगा  राजनेताओं को नहीं दरकार की.  बातें हुई बहुत संस्कार की  आदतें बन गयी सदाचार की  जीवन एैसे रहेगा "उड़ता ",  नाउम्मीद होकर सरकार की.   

चलो जिया जाए

तेरी जरूरतें थोड़ी सी सुरेंद्र सैनी बवानीवाल  रब से जो ज़िन्दगी मिल गयी,  क्यों ना इसे जिया जाए. अपनी खुद की हस्ती मिल गयी,  फिर क्यों शोहरत मांगी जाए.  वक़्त निकल ना जाए उधेड़बुन में,  क्यों जीने की मोहलत मांगी जाए.  तेरी जरूरतें थोड़ी सी है,  क्यों बेइंतहा दौलत मांगी जाए.  ये कफन, जनाजे और क़ब्र सत्य है,  बेहतर कोई सोहबत मांगी जाए.  पीड़ा ने तुमको कुंदन बनाया "उड़ता ",  क्यों ना वजय-ए-ज़िन्दगी जिया जाए.