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बंटवारा होगा ना दोबारा..

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विश्व गुरु कहलाता था!  नालंदा और तक्षशिला से जग में.. विजय सिंह भारत स्वर्ग हुआ करता था! अफगानिस्तान से बर्मा तक, भारत भूमि अखंड थी! यहाँ की गाथा विश्व पटल पर, विजय, सुशोभित और प्रचंड थी!!                अखंड भारत का एक है नारा,                बंटवारा होगा ना दोबारा!                राष्ट्र बटा था सन सैंतालीस में,                नरसंहार हुआ बहुतेरा!! वीभत्स कृत्य था वो बंटवारा, जो हुआ धर्म के नाम पर! प्रताड़ितों को शरण मिली थी, भारत भूमि महान पर!!                जब भी प्रबल हुआ अँधियारा,                सूरज के किरणों से हारा!                कहीं सृजन तो कहीं प्रलय है,                सृष्टि नियंत्रण भेद है सारा!! नैतिक मूल्यों के पथ पर, भारत आगे बढ़ता है! मानवता के रक्षण हेतु, आतंकवाद से लड़ता है!!                आतंकवाद की मारी दुनिया,                कब तक प्राण बचाए!                 कब तक मानव बेबस होकर,                दुष्टों से टकराए !! विश्व शक्ति बन उभर रहा है, विश्व गुरु कहलाता था! नालंदा और तक्षशिला से जग में, ज्ञान चेतना फैलाता था!!                भारत का स्वर्ग हुआ करता था,    

एक अहसास हो माँ

  मां तुम खास हो संग हो न हो मेरे दिल के सदा पास हो जब भी मैं इस दुनिया की संगत से मैं थक जाता था  तेरे आँचल मैं आकर चुपके से सो जाता था  कहती भी न तुझ से कुछ मन ही मन सकुचाता था मा  फिर तेरे पास होने के अहसास से खुश हो जाता था  इस जंजाल भरी दुनिया मे फिर जाने से घबराता था  सोचता था  हूं कुछ हो न हो बस तेरा साथ हो माँ तुम ख़ास हो एक अहसास हो संग हो न हो मेरे दिल के सदा पास हो जब तक  यह जीवन हैं मा आप सदा मेरे मन मन्दिर में रहोगी  आपको नमन हैं../

हर दिन हो वैलेंटाइन!

प्यार में  वैलेंटाइन सुरेन्द सैनी  अगर प्यार में हो हर दिन वैलेंटाइन है उनसे इज़हार हो हर दिन वैलेंटाइन है ख़ुशी  मन-अंदर से बाहर झलकती है  दिल  गुबार  हो हर  दिन वैलेंटाइन है किसी एक दिन से क्या फर्क पड़ता है संवेदना भार हो हर दिन  वैलेंटाइन है 14 फरवरी को तो बहुत कुछ हुआ है बाकी भी सार हो हर दिन वैलेंटाइन है जवानों  ने  हमारी  हरदम  रक्षा की है शहीदों का आभार हो हर दिन वैलेंटाइन है प्रेम सिर्फ कॉलेज की चीज़ नहीं होती माँ-बाप स्नेह अपार हो हर दिन वैलेंटाइन है इस दिन की आड़ में संस्कार  गिर रहे विरासती आधार हो हर दिन वैलेंटाइन है पश्चिमी सभ्यता को कांधो पर  ढ़ो रहे खुदका विचार हो हर दिन वैलेंटाइन है वतन से प्यार हो हर दिन वैलेंटाइन है "उड़ता" गुलजार हो हर दिन वैलेंटाइन है

हर दिन लिखता हूँ!

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  कलम का सिपाही हूँ! सुरेंद्र सैनी बवानीवाल हर दिन लिखता हूँ कलम का सिपाही हूँ कुछ कदम नापता हूँ बढ़ता हुआ राही हूँ मैं शब्दों  को  जोड़कर कविता बनाता हूँ सोच मेरी दवात है मैं ही अपनी स्याही हूँ देखता हूँ देश के  बदलते हुए हालात को देख मूक हूँ परेशान हूँ सीने में समाही हूँ चंद लोग वतन-रूह को नोंचने में लगे हैं दिख रही बर्बादियाँ आती हुई  तबाही हूँ गलत लोग तो सदा गलत ही रहेंगे "उड़ता" मैं सब समझता हूँ पर ऐसा-वैसा नाही हूँ

बदल दिया ज़माना!

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  बदलाव की बयार.. मंजुल भारद्वाज जब जब भूमि पुत्रियों ने ठाना तब तब बदल दिया ज़माना ! चूल्हे की आग़ जब बनी मशाल तब भड़क उठी चारों ओर क्रांति ज्वाला ! जाग मक्कार भाग गद्दार छोड़ गद्दी हो फ़रार ओ पूंजीपतियों के दलाल अब रण में कूद पड़ी देख भारत की बाला ! छद्मी राष्ट्रवादियो खबरदार संघी विकारियो होशियार भूमि पुत्रियों की ललकार है बदलाव की बयार !

विजय दशमी के उपलक्ष में आयोजित सम्मान समारोह एवं कवि सम्मेलन सम्पन्न

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मार कर ब्राह्मण को पुतला फूंकते हो! आज भी..? -पं. बेअदब लखनवी मनोज मौर्य  लखनऊ। मार्तण्ड साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्था के तत्वाधान में आयोजित सम्मान समारोह एवं कवि सम्मेलन सम्पन्न आज मार्तण्ड साहित्यिक साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्था के तत्वाधान में कवि सम्मेलन एवं सम्मान समारोह का सफल आयोजन आंन लाइन किया गया। इस कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ साहित्यकार, कवि, लेखिक अध्यक्ष अनिरुद्ध काव्य धारा संस्था गदरपुर (ऊधमसिंह नगर) उत्तराखण्ड सुबोध कुमार शर्मा "शेरकोटी" ने किया। इसका संयोजन सुरेश कुमार राजवंशी के कविता सत्यपाल सिंह 'सजग' की वाणी बन्दना से शुभारंभ हुआ। गदरपुर उत्तराखण्ड के कवि सुबोध कुमार शर्मा ने 'काम क्रोध मद लोभ को त्याग दे, मां के चरणों में विरागदे', अंतर में जो बैठा है रावण उसको हम सद्यः ही निकाल दे' सुना कर मंत्रमुग्ध कर दिया। मन' ने लोगों को अक्सर आग से बचकर चलते देखा है, हमने बाज को मगर तुफानों से लड़ते देखा है..  कवि पं. बेअदब लखनवी--मार कर ब्राह्मण को पुतला फूंकते हो आज भी! 'खुश भला क्यूँ हो रहे हो नेक था वो आदमी&#

मैं दिखावा कर नहीं सकता हूँ

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प्यार को क्यों बेच दूँ बलजीत सिंह बेनाम दिल है नादां अपने दिल से मैं बग़ावत क्या करूँ उनसे नफ़रत क्या करूँ उनसे मोहब्बत क्या करूँ लौट कर वापस न आया है सितमगर आज तक ये बता जाता कि माज़ी से जुड़े ख़त क्या करूँ मैं दिखावा कर नहीं सकता हूँ दुनिया की तरह मन में ही इज्ज़त नहीं तो झूठी इज्ज़त क्या करूँ प्यार को क्यों बेच दूँ फिर हुस्न के बाज़ार में लोग चाहे कुछ करें पर मैं सियासत क्या करूँ

माँ मुझे....

सुरेंद्र सैनी हे माँ  मैंने देखे हैं  तेरी आँखों से झरते आँसू  जो पिता के लड़खड़ाते क़दमों के  दहलीज के भीतर आते ही  भर आए थे तेरे नेत्रों में. और जिन्हें तूने समेट लिया था अपनी पलकों के अंदर. हाँ मैंने महसूस किए हैं  तेरे नैनों से गिरते आँसू जो आज बेरोजगार भाई के आवारा क़दमों के नीचे  एक पल में रोंदे गए.  तेरे आँसू  जो सपनों की पीड़ा से उग आए थे.  जिन्हें तूने घुटक लिया था  अपने कंठ में.  मैंने देखे हैं तेरे आँसू  जो जवान होती बहन के  ब्याह की फ़िक्र में  उठे थे तेरी पलकों पर.  जिन्हें तू छिपाना चाहकर भी  छिपा ना पायी  अपने आप से और मुझ से.  हे माँ  मैं गवाह रही हूँ  तेरे हर आँसू की  जो इन दुनियावी नातों ने  दिये हैं पल-पल तुझे अपने गरल भरे पंजों से.  तभी तो माँ तू मुझे  गर्भ में ही मार देना चाहती थी.  ताकि तेरी तरह मुझे भी पीना ना पड़े वजय-बेवजय  अपमान के ज़हर का घूंट.  नहीं माँ नहीं  मुझे मिली है एक नई ऊर्जा तेरी आँख से गिरते आँसुओ से  इन सभी का मुकाबला करने की मैंने पा ली है शक्ति अपना हक़ लेने की  और अपना वजूद बचाने की मैं छीन लुंगी  अपने हिस्से का आकाश  तेरी उस नीलकंठ छवि से. माँ तूने मुझ

यह कौन हैं?

मंजुल भारद्वाज  अपने घर को वापस लौटते  मीलों पैदल चलते  साइकिल चलाते  सब बेचकर बस में सवार  ट्रेन के सफ़र की दुत्कार  सहने वाले कौन हैं? मार,भूख,प्यास के मारे  तिरस्कार के शिकार  कौन हैं? जहाँ रह रहे हैं  वहां की सरकार  ना भेजना चाहती है  ना रखना चाहती है  जहाँ घर है  वहां की सरकार  उनको बोझ समझती है  यह अनचाहे  दर दर भटकते  कौन हैं? क्या यह किसी प्रजातंत्र के नागरिक हैं? क्या यह संवेदनशील समाज के नागरिक हैं? मज़दूर,ग़रीब कौन हैं? अपनी ज़िंदा लाश ढ़ोते हर जगह दिखने वाले  यह कौन हैं? भारत माता का जयकारा  लगाने वाले चौकीदारो बताओ  क्या यह भारत की संतान नहीं हैं?  चाय बेचने वाले  अपने आप को  गंगापुत्र कहने वाले  बताओ यह कौन हैं?

एक प्यारा घर बनाकर..

डॉ   इला रंजन सपनों का इंतजार  हसरतों की सीढ़ी चढ़कर     चाहतों की दीवार पकड़कर अरमानों के रंगो से रंगकर    प्यार की सुंदर छत सजाकर एक प्यारा घर बनाकर      मुस्कान की तोरण लगाकर खुशियों की खुशबू फैलाकर     कर रही सपनों का इंतजार

मजदूर तेरी इबादत है

मंजुल भारद्वाज मजदूर मेहनत, जुनून दुर्गम रास्तों के मसीहा होते हैं कुदरती संसाधनो के प्रतिबद्द रखवाले मुनाफ़ाखोर नस्लों से लोहा लेते शिल्पकार पशुता,दासता,सामन्तवादी सत्ताओं को उखाड़ने वाले अपना मुक्कदर लिखने वाले मुक़द्दस मेहनतकश संगठक उठ आज भूमंडलीकरण के ख़िलाफ़ विविधता और मनुष्यता की हत्या को रोकने वाला बस तू ही है सर्वहारा लोकतंत्र को पूंजी की क़ैद से तू ही आज़ाद कर सकता है सत्ता के तलवे चाटता मुनाफ़ाखोर मीडिया पूंजी की चौखट पर टंगी अदालतों की बेड़ियों को तू ही तोड़ सकता है अपने खून से लाल लिखने वाले ऐ माटी के लाल अब उठ विकास के विध्वंस को रोक पढ़े लिखे,विज्ञापनों के झूठ को सच मानने वाले अनपढ़ों से तू ही धरती को बचा सकता है हाँ मुझे पता है तुझे संगठित करने वाले खुद अपनी अपनी मुर्खता से विखंडित हैं आज तूझे लाल झंडों की नहीं समग्र राजनैतिक समझ की जरूरत है पता है तू टुकड़ों टुकड़ों में बिखरा है पर अब तेरे जिंदा रहने के लिए तेरी मुठ्ठी का तनना जरूरी है देख तेरे पास खोने के लिए कुछ नहीं है तू आज जहाँ खड़ा है वहां सिर्फ़ मौत है देश के स्वतंत्र सेनानियों ने तुझे संविधान की ताकत दी है संविधान का पहला शब्द

पूर्णत्व..

-मंजुल भारद्वाज  1. परावलंबन से स्वावलंबन  जन्म से शरीर का पूर्ण विकसन  मस्तिष्क का वैचारिक विकसन  भावाभिव्यक्ति  आत्मिक शांति ! 2. निज का पोषण  निज जरूरतों का निवारण  निज से परिवार  संसारिकता निभाने की योग्यता  उसके लिए समाज में  अपने मन का  बेमन का ‘कुछ’ बनने का  खिताब हासिल करना  समाज के संसार में  खप जाना ! 3. विचार प्रकोष्ट में बैठ जाना  समाज में रहते हुए  अलिप्त रहना  दुनियादारी में रहते हुए  अपने विचार में रम जाना  अपने शोध सूत्रों से  दुनिया को नई राह दिखाना ! 4. राज काज छोड़  परिवार छोड़  खुद की खोज में  रात के अँधेरे में लुप्त हो  आत्म को प्रदीप्त करना  आत्म को दीया बना  आत्म को प्रकाशित करना  बुद्धू से बुद्ध बन जाना ! 5, पंचतत्व को पहचानना  अपने सृजन तत्वों के  गुण धर्म को  कलात्मक आकार देना  स्वयं के ब्रह्मांड में पैठ कर  काल को आकार देना  अपने स्पंदन से सार्वभौमिकता का  वैश्विक भ्रमण करते हुए  अपनी कला से  मनुष्य को इंसान बनाना  जड़ को चैतन्य  चैतन्य की लौ में  विचार,भाव,देह,अध्यात्म को  कला सौन्दर्य बोध से  पल पल जीना  समग्रता और पूर्णत्व को साधना निजता के शून्य स्पंदन से  ब

लाशों को देख रो रहा शमशान

डॉ बीना सिंह दुर्ग, छत्तीसगढ़। उसके हाथों मात हर बार इंसान देखो अपने ही हाथों बर्बादी का अंजाम देखो चारों सूहे खेल मचा मंजर तबाही का इंसान बस है चंद दिन का मेहमान देखो घुटनों के बल आज वह गिड़गिड़ा रहे हैं जो खुद  को  समझते  थे भगवान  देखो शहंशाह माना करते थे सारे जहां का हुए किस तरह हम पर मेहरबान देखो हंसती खेलती हमारी दुनिया  आबाद थी लाशों को देख रो रहा आज शमशान देखो

नज़र आ गया... 

मुददतों बाद मेरा दोस्त सुरेंद्र सैनी बवानीवाल मुददतों बाद मेरा दोस्त नज़र आ गया.  जैसे तपते सहरा में समंदर नज़र आ गया.  किसी बेचैनी में मायूस हुआ जाता था,  आज लोट कर नसीब मेरा घर आ गया.  अबतक की महफ़िल ख़ामोशी में गुजरी है,  तेरे दम,मुझमें बातें बनाने का हुनर आ गया.  अब तो तुम भी हर बात पर मुस्कुराते हो,  लगता है मेरी सोहबती का असर आ गया.  सारे शहर में ढूँढा, मुझे तू दिखाई ना दिया,  तुझे खोजते-तलाशते मैं इधर आ गया.  क्यों तुझे खल रही है ये बुलंदी मेरी,  जो तू मुझे बदनाम करने पे उतर आ गया.  महफ़िल चली लम्बी सभी यार-दोस्त बैठे रहे,  पता ना चला,कब जाम लगाते सहर^ आ गया. (सुबह ) तंग थी गलियां बहुत, ऊँचे-नीचे थे रास्ते,  पगडंडियों पर चलते,देखो शहर आ गया.  अपने अक्स को निहारना क्या समझदारी है,  इस ठहरे हुए पानी में कैसे भंवर आ गया.  वो जवाब देने में बहुत वक़्त लेता है अकसर,  मुश्किल था फैसले पर आना, वो मगर आ गया.  लगा उसकी रूह मार दूंगा, वो अगर आ गया,  "उड़ता "क़त्ल करने का, तुझमें जिगर आ गया.   

मयखाने में दर्ज़... 

सुरेंद्र सैनी बवानीवाल  और मेरे दर्द का क्या मर्ज है.  मेरा नाम तेरे मयखाने में दर्ज़ है.  गुनगुना जो लेता हूँ तन्हाई में,  ये मेरे छलकते जामों की तर्ज़ है.  जो मुझे पीने से रोकता है अकसर,  क्यों ये ज़माना बड़ा खुदगर्ज़ है.  साक़ी अपना कर्म ठीक ना करे,  उसे मयकशीं सीखना मेरा फर्ज़ है.  पीने से उसको नहीं भूलोगे "उड़ता ",  उसकी सूरत तेरे दिल में बर्ज़^ है. (छिपा हुआ ).   

बेरोजगार का नहीं होता दफ़्तर..

सुरेंद्र सैनी   मुक्त रचना... तू ही  आधा सफर बीत गया सोकर ही.  चले, तब से मिल रही ठोकर ही.  नहीं दिखता कभी नया मंज़र ही.  अपनों से ही मिलता रहा खंज़र ही.  ज़मीन पर सोना पड़ा है अकसर ही. हालात ने दिया नहीं मुनासिब बिस्तर ही.  इस रात की होती नहीं सहर ही. राह देखते पथरा गयी नज़र ही.   रखा है सभी जख्मो को सीकर ही.  रह जाते हैं अपने अश्क़ पीकर ही.  कहाँ जाएँ अपना तो नहीं घर ही.  बेरोजगार का नहीं होता दफ़्तर ही.  "उड़ता" तू ना बन सकेगा सिकंदर ही. तूने ख़ुश्क आँखों से गुजारा है समंदर ही.   

ज़िंदगानी ले जाओ... 

सुरेंद्र सैनी बवानीवाल मुझपर जो गिरी वो दमानी^ ले जाओ. (बिजली ) मेरे प्यार की कोई निशानी ले जाओ.  मेरे हरफों की क्या क़ीमत तय करते हो,  यकीन के साथ मेरी ज़ुबानी ले जाओ.  तुम्हें देने को मेरे पास बाकी कुछ नहीं,  बस, कुछ अच्छे वक़्त की कहानी ले जाओ.  चढ़ता आफ़ताब^ सभी की सलामी का सबब^.(सूर्य, बहाना ) तुम भी चलते कारवां की रवानी ले जाओ.  अब तक की ज़िन्दगी अरबदा^ में गुजरी.  (संघर्ष ) चलो मेरे हिस्से की शामदानी^ ले जाओ.  (ख़ुशी ) तेरे साथ रहते वक़्त तभी गुजर जाता है,  दरमियाँ की उजली सुबह, शाम सुहानी ले जाओ.  मुझे नयी-नयी नज़्म कहने का शौक है,  मेरे लफ़्ज़ों में बँधी मेरी बयानी ले जाओ.  कभी-कभी तन्हाई में मुझे याद किया करना,  लाया हूँ संभालकर शराब पुरानी ले जाओ.  जाति-बिरादरी का तो कभी ध्यान ही न रहा,  बस इंसानियत में डूबी अदानी^ ले जाओ.  ( बहुत पास वाले ) तू जा रहा है तो दिल मेरा उदास है बहुत,  जाते -जाते मेरी आँख का पानी ले जाओ.  तमाम उम्र मोहब्बत को तरसते निकल गयी,  "उड़ता "मेरी ख्वाहिशों भरी ज़िंदगानी ले जाओ.   

हम ही क्यों गुनहगार बन गए...

सुरेंद्र सैनी बवानीवाल  लोग सतही रहे हैं....  वक़्त की मार से असि रहें हैं.  गुजरते लम्हों में जी रहें हैं.  बहुत दंश झेले हैं अब तलक,  हर पल अपने अश्क़ पी रहें हैं.  अब वो दूर से निकलते हैं,  जो अपने करीब कभी रहें हैं.  हम ही क्यों गुनहगार बन गए,  गुनाह के साथी तो सभी रहें हैं.  मौके पर लोग बदलने लगे,  रिश्ते भी जैसे मौसमी रहे हैं.  किस बात पर तनी पता नहीं,  कुछ वाकये गलतफहमी रहे हैं.  आदतों से पता नहीं चलता,  कहने को तो आदमी रहे हैं.  ऊपर से निगाह डाली तो क्या,  वो स्वभाव से सतही रहे हैं.  तुम ही गलत हुए हो "उड़ता ",  बाकी तो लोग सही रहे हैं.   

फिसलते जाते बिना जीने की उम्मीद

डॉ इला रंजन अपनों के चेहरे के उपर एक नया अजनबियों का मुखौटा लगा देखना, जीने का मकसद ही बदल देता है .! "कब" और "कैसे" के उधेड़बुन में फंसे, निरन्तर हम निराशाओं की खाईं में गिर, फिसलते जाते बिना जीने की उम्मीद लिए.!!

सम्मान करना सीखो धरा का

रश्मि पहली किरण बायरस तांडव  हर तरफ चित्कार और ,संताप का माहौल है  समय चक्र के आगे आज मानव  मूक और बेहाल है । सृष्टि के गर्भ में ना जाने कहां शांति हुआ हलाल है आज मानव को अपने कुकृत्यों पर हो रहा  मलाल है ।। विश्व चमन यूँ उजर रहा, मानो गज वन को रौंद रहा  पग पग पर करुणा- क्रंदन का हृदय विदारक दृश्य है नाच रहा। संग्राम यह देखो कैसा है  नर जीवन को है तरस रहा विज्ञान ने घुटने टेके है ऐसा वायरस फैल रहा  चहू ओर भुवन पर पड़ पीड़ा है  ये कैसा घोर अंधेरा है  मानव मानव से है दूर हुआ ऐसे अब वक्त ने घेरा है। उगते सूरज सी खिलती धरती जाने कैसे हैं मंद परी  विश्व पटल पर विश्व पटल पर महामारी से लाशों की है ढेर लगी ।। जागो मानव अभी छोड़ो रन और वल का मद संगम कितना खोदोगे गोद गोद कर प्रकृति का यह दृश्य विहंगम । संसार का नाम है पार करो संसार का ना व्यापार करो यह सौदा नहीं सौगात बड़ा सीखो सहेज इसका इसकी रक्षा करना मत और दिखा औकात बड़ा ।। बल के मद में अंधे होकर कितना विनाश करवाओगे  अब भी अगर सम्हलोगे जाने कितने ठोकर  तुम खाओगे। कर तांडव विनाश का आपस में बस खाक में मिल तुम जाओगे  करना सीखो सम्मान धरा का वरना