आध्यात्मिकता के रंग में रंगे शौर्य प्रदर्शन का त्यौहार होला मोहल्ला

गुरु गोविंद सिंह जी ने किया "होला मोहल्ला" का आयोजन प्रारंभ
देवेंद्र पाल सिंह बग्गा
होली का त्यौहार भारत का प्राचीन त्यौहार है जो देश में प्रेम, उल्लास, सौहार्द और समरसता के पर्व के रूप में मनाया जाता है। सत्य और धर्म की विजय के रूप में होलिका दहन का यह त्योहार होली के रूप में पिछले हजारों वर्षों से मनाया जा रहा है । आस्था से जुड़े लोग एक दूसरे पर रंग लगाकर हर्ष व प्रसन्नता का प्रदर्शन करते हैं। परंतु वर्तमान में, पिछले कुछ दशकों से इस त्यौहार का स्वरूप विकृत हो चुका है। जनसाधारण एक दूसरे पर रंगों के साथ गंदगी, कीचड़, गोबर तथा अन्य रासायनिक व हानिकारक पदार्थ भी फेंकने लगे हैं। हर्षगीतों के स्थान पर अश्लील व फूहड गीतों का प्रचलन सा हो गया है। सिक्ख धर्म एक आधुनिक एवं विलक्षण धर्म है। 
सिक्खों की पहचान, उनका स्वरूप, उनकी वेशभूषा एवं उनका रहन-सहन दूसरों से भिन्न है, वहीं उनके त्यौहार भी कुछ भिन्नता लिए हुए हैं । यद्यपि सिक्ख समुदाय के लोग विश्व में जहां भी रह रहे हैं, वहां के परिवेश में घुल-मिल कर, स्थानीय लोगों के  समारोहों में भाग लेकर पूर्ण सहयोग प्रदान करते हैं। परंतु इन सब के बावजूद सिक्खों की अपनी कुछ परम्पराएं हैं और अपने निरालेपन के कुछ अलग अंदाज हैं, जिससे उनकी विलक्षणता प्रतीत होती है।
तन एवं मन को प्रभु प्रेम के पक्के रंग में रंगने  के त्योहार के रूप में मनाना चाहिए
सन 1699 ईस्वी में खालसा की सृजना के बाद गुरु गोविंद सिंह जी ने अपने खालसा (सिक्ख श्रद्धालुओं के संत सिपाही समूह) में इस त्यौहार को एक नए रूप में प्रचलित किया। उन्होंने होली के स्थान पर, होली के दूसरे दिन सन् 1700 ई०  से "होला मोहल्ला" का आयोजन प्रारंभ किया। वास्तव में 'होला 'अरबी भाषा का एक शब्द है जिसका अर्थ है हमला तथा 'मोहल्ला' फारसी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है हमले का स्थान । गुरु जी ने पिछले सैकड़ों वर्षो से भारत के दबे कुचले तथा मानसिक एवं आत्मिक रूप से मृतप्राय जनसाधारण के हृदय में अन्याय के प्रति मुखर विरोध प्रकट करने की भावना को जागृत करने तथा उनमें वीरता एवं साहस का संचार करने के लिए होली के त्यौहार के इस बदले स्वरूप को अपने सिक्खों में प्रचलित कर दिया। पंजाब के आनंदपुर साहिब में गुरुजी ने सिक्खों को दो दलों में विभक्त कर उनमें आपस में छद्म (नकली) युद्ध के द्वारा शौर्य एवं पराक्रम के प्रदर्शन का आयोजन तथा प्रतियोगिता करवाने की परंपरा  एवं विजयी दलों को पुरस्कृत करने तथा उनका उत्साह बढ़ाने की परंपरा शुरू की। 
शौर्य प्रदर्शन की यह परम्परा आज भी पंजाब के विभिन्न स्थानों पर जारी है। कथा - कीर्तन के आयोजनों के पश्चात निहंग सिंहों के जत्थे अत्यंत जोश व उल्लास के साथ घुड़सवारी, तीरंदाजी, तलवारबाजी एवं गतका (मार्शल आर्ट) का प्रदर्शन एवं प्रतियोगिता करते रहते हैं।
सिक्ख गुरु साहिबान ने शारीरिक शक्ति को नियंत्रित करने के लिए आत्मिक एवं आध्यात्मिक शक्ति की आवश्यकता को भी समझते हुए तथा होली के अवसर पर समाज में प्रचलित बुराई से बचने के लिए इन क्षणिक एवं कृत्रिम रंगों के स्थान पर अपने सिक्खों को प्रभु प्रेम के रंग में रंगने की प्रक्रिया प्रारंभ कर दी थी। गुरुजी का उद्देश्य था कि उनके श्रद्धालु सिक्ख आध्यात्मिक शक्ति के साथ साथ आत्मिक रूप से भी सबल हो जाएं तथा किसी भी प्रकार के अन्याय के विरुद्ध डटकर खड़े होने तथा सत्य व धर्म की रक्षा हेतु जूझ मरने का संकल्प भी ले सकें।
गुरबाणी के अनुसार  
"राम रंगु कदे उतरि  न जाइ।। गुरु पूरा जिसु देह बुझाइ।।"

अर्थात प्रभु प्रेम का रंग स्थायी होता है, जिस किसी भाग्यशाली के हृदय पर  प्रभु प्रेम का रंग चढ़ जाए तो वह उतरता नहीं है। तथा

"जा  कउ हरि रंगु लागो इसु जुग महि  सो कहीअत है सूरा।।"

भाव यह कि इस संसार में जिस मनुष्य का हृदय परमात्मा के प्रेम के रंग में रंगा जाता है वही वास्तविक शूरवीर कहलाता है। तथा 

"लाल रंगु तिस कउ लगा जिसके वडभागा।।

मैला कदे ना होवई नह लागै दागा।।"

अर्थात जिस मनुष्य का भाग्य उदय हो जाए, उसके ही मन को प्रभु प्यार का गाढ़ा लाल रंग चढ़ता है। यह रंग ऐसा है कि  इस रंग को माया/ विकारों की मैल नहीं लगती तथा इसको विकारों का दाग नहीं लगता।

पांचवें गुरु श्री गुरु अरजन देव जी का फरमान है कि प्रभु के गुणगान करके मेरे हृदय में इतना उल्लास भर जाता है जैसा फागुन के मास में होता है, संत जन सत्संग में आकर प्रभु के नाम की मानो होली खेलने लगे हैं, मैंने तो संत जनों की सेवा को ही होली खेलना समझकर आनंद प्राप्त कर लिया है, जिसके कारण मेरी अंतरात्मा को परमात्मा के प्रेम का गहरा, स्थायी एवं पक्का रंग लग गया है।

"आजु हमारै बने फाग।। प्रभ संगी मिलि खेलन लाग।।

 होली कीनी  संत सेव।। रंगु लागा अति लाल देव।।

इस प्रकार 'होला मोहल्ला' का त्यौहार प्रभु प्रेम के स्थायी रंग में रंग कर आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त करने, युद्ध विद्या सीखने तथा युद्ध कला-कौशल का प्रदर्शन करने का दिन होता है। 

अतः इस  पवित्र दिवस के अवसर पर हमें बाहर के कीचड़ के साथ-साथ हृदय के भीतर की गंदगी (पंच विकारों) को त्याग कर तन एवं मन को प्रभु प्रेम के पक्के रंग में रंगने  के त्योहार के रूप में मनाना चाहिए।

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