बेरोजगार का नहीं होता दफ़्तर..

सुरेंद्र सैनी 


मुक्त रचना... तू ही 


आधा सफर बीत गया सोकर ही. 
चले, तब से मिल रही ठोकर ही. 


नहीं दिखता कभी नया मंज़र ही. 
अपनों से ही मिलता रहा खंज़र ही. 


ज़मीन पर सोना पड़ा है अकसर ही.
हालात ने दिया नहीं मुनासिब बिस्तर ही. 


इस रात की होती नहीं सहर ही.
राह देखते पथरा गयी नज़र ही.  


रखा है सभी जख्मो को सीकर ही. 
रह जाते हैं अपने अश्क़ पीकर ही. 


कहाँ जाएँ अपना तो नहीं घर ही. 
बेरोजगार का नहीं होता दफ़्तर ही. 


"उड़ता" तू ना बन सकेगा सिकंदर ही.
तूने ख़ुश्क आँखों से गुजारा है समंदर ही. 


 


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