मुश्किल है घर बनाना.... 

सुरेंद्र सैनी बवानीवाल


स्वरचित मौलिक रचना. 


आसान नहीं लगता शहर में घर बसाना. 
दौर है पेचीदा किसी को अपना बनाना. 


कई लोग दोस्त होने का दम भरते है, 
होता नहीं मुझसे किसे, हाल-ए-दिल सुनाना. 


रात के अंबर में कितना कुछ समाया है, 
कैसे मुमकिन होगा तारों से आगे देख पाना. 


मेरी कुछ ज़िम्मेदारियाँ मुकम्मल नहीं हुई, 
मेरी हज़ार कमियाँ देखता है ज़माना. 


कुछ रकीबों को मेरी आवाज़ पसंद नहीं, 
वरना तो चाहता हूँ मैं भी कुछ गुनगुनाना. 


जब भी देखता हूँ किसी मज़लूम को रोते, 
नहीं हो पाता मुझसे खुशियाँ मनाना. 


ग़म तो अपनी ज़िन्दगी का लाख हिस्सा है, 
"उड़ता "मैं नहीं भूलता हर हाल मुस्कुराना


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