श्रृंगार बन अकुलाई

मनकही  बसंत     



विनय विक्रम सिंह


नयन मलते हैं सुमन, भोर की अँगड़ाई है।
पीत वसना है धरा, मुख सलज अरुणाई है।। 


गुंजरित मुद प्राण ले,
प्रकृति सरसिज हो रही।
मुग्धकारी कोकिला,
स्वर मधुर शुभ बो रही।
मद मलय मदिरा मयी,
स्पंदना नव छाई है।।
नयन मलते हैं सुमन, भोर की अँगड़ाई है।१।


संचरित नव चेतना,
नव वधू सा है भुवन। 
पवन चंचल डोलता,
छू रहा है हर सुमन।
अधखिली कलिका भ्रमित,
सकुच मन मुसकाई है।
नयन मलते हैं सुमन, भोर की अँगड़ाई है।२।


स्वप्नवत चहुँ-दिश सजीं,
इंद्रधनुषी हो रहीं।
कामना हर हर्षिता,
अंकुरित तन हो रहीं।
छन्दलय की रागिनी,
श्रृंगार बन अकुलाई है। 
नयन मलते हैं सुमन, भोर की अँगड़ाई है।३।


भृंग अविरल डोलते,
शीतल समीरण कर रहे।
गुन परागित नेह से,
कोष हृद मधु भर रहे।
पुहुप ने मधुमास की,
मोहक छटा छनकाई है। 


नयन मलते हैं सुमन, भोर की अँगड़ाई है।
पीत वसना है धरा, मुख सलज अरुणाई है।४।


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