हर दिन कुआँ खोदता इंसान....

क्या आज़ादी ... 


सुरेंद्र सैनी बवानीवाल 


लोग कहते हैं कि हम, 
आज़ाद हो गए हैं. 
शायद वो सच कहते हैं. 
मगर क्या ये आज़ादी 
सिर्फ बोलने की हो? 


आज भी जीवन की पगडंडियों पर, 
ऊँची -नीची डगर है. 
हर दिन कुआँ खोदता इंसान 
और फिर पानी लेता. 



भूलकर अपनी आज़ादी 
हालात से समझौता करता. 
कभी राशन के लिए 
कभी तेल के लिए 
दूर तक पैदल फिरता. 


सरकार बदल गयी 
तंग -ए -हाल नहीं बदले. 
वो तो बस एक वोटर है 
कोई उसपर तरस नहीं खाता. 


जाने कब बीत गयी 
भरी धुप में अल्हड़ जवानी. 
पीठ पर पहाड़ लादे 
सूखती तन -ए -घास व पानी. 


उसके हाथों की कोमलता नहीं दिखती. 
उसकी झूरिओं में बेबसी नहीं दिखती. 
कैसी आज़ादी
 और कब मिली "उड़ता "
ये बात फर्क नहीं करती. 





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