अपने, पराये हो गए "उड़ता ", 

ये कैसे दिन दिखलाये


सुरेंद्र सैनी बवानीवाल 


गुजर रहा ज़माना -ए -दौर. 
एक आए तो दूसरा जाए. 
जिसके मन में आग लगी हो, 


उसे कैसे सावन भाए. 
जीवन में जो कमी बची हो, 
मन की प्यास कौन बुझाए. 


काली -पिली छटा अँधेरी, 
घनघोर घटा सी छाए. 
तड़प रहा विरही का मनवा, 


कहीं दूर से शौर आए. 
क्यों भूल रहे विगत की बातें, 
अब कैसे याद दिलाये 


धुल गया सिंदूर मांग का, 
उसे सावन कैसे भाए. 
बीच राह अटकती दूरी, 


उसे मंजिल कौन पहुंचाए. 
बारिश आई सावन बरसा, 
वो दुखियारी नैना -जल बरसाए. 


दूरी दिलों के बीच थी, 
जो रात -दिन तड़पाए. 


अपने, पराये हो गए "उड़ता ", 
ये कैसे दिन दिखलाये. 


 


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