अपना मंजिल-ए-ठिकाना

स्वयं को खोज रहा हूँ?


सुरेंद्र सैनी बवानीवाल 


जब भी कभी होता हूँ तन्हा 
धीमी हो जाती है धड़कन 
कुछ विचार आने लगते है मन में 
और मैं निकल पड़ता हूँ 
स्वयं को कहीं खोजने. 


राह चलते सब्ज -बाग पत्ते 
पीछे भागते पेड़ और पक्षी 
एक दूसरे में रमे 
आदम और हव्वा की तरह 
कहीं रहते होंगे प्रेम -द्वीप में 


ज़माने से अन्जान 
दुनिया से बेखबर 
बस चल रहे हैं 
हवा संग बह रहे हैं 
मैं भी चला जा रहा हूँ 


नज़रों को लगाए 
हाथों से बँधे 
आकुल एक सपना लिए 
स्वयं को खोजने कहीं 
कभी तो कहीं मिल जाएगा 
"उड़ता "अपना मंजिल -ए -ठिकाना. 


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