हरा कलींदा बिना फाँक का, नारंगी टुकड़े-टुकड़े

हरा कलींदा (तरबूज़)


विनय विक्रम सिंह


हरा कलींदा बिना फाँक का, नारंगी टुकड़े-टुकड़े।
एक धर्म की गुरिया गूँथे, एक सयाना बन झगड़े।।


जाति-छूत का खोल ओढ़कर, नारंगी फाँके गिनती,
अपने-अपने गाल बजाकर, नित फाँके बढ़ती रहतीं।



मगर कलींदा बड़ा सयाना, सब्ज़बाग दिखलाता है,
पर अन्दर ही अन्दर पाले, रंग


हरा कलींदा बिना फाँक का, नारंगी टुकड़े-टुकड़े।१।


अख़बारों ने दस जगहों पर, पूछा दस तरबूजों से,
चुनोगे कैसे खेत का बिज्जू, चेहरे या करतूतों से।



हूँ हूँ हूँ दिन-रात करे जो, वो उल्लू हम हैं चुनते,
दिखा इस तरह हर तरबूज़ा, दुम इक-दूजे की पकड़े।



हरा कलींदा बिना फाँक का, नारंगी टुकड़े-टुकड़े।२।


अपनी ताक़त भीड़ तंत्र से, तरबूजे हैं दिखलाते,
नारंगी में फूट डाल कर, कुछ को अपना जतलाते।



नारंगी फाँकें इतरातीं, सावन के अंधे जैसी,
पर तरबूजे हरे ही रहते, इनका रंग नहीं बिगड़े।



हरा कलींदा बिना फाँक का, नारंगी टुकड़े-टुकड़े।३।


लाल-हरे की मुगली घुट्टी, बचपन से टोपी बुनती,
रटी- रटाई हरी सोच की, ऊँची मीनारें गुनती।



सोच-समझ की कछुए जैसी, ढाल कड़ी इन पर चढ़ती, 
इसके अंदर दुनिया इनकी, बाहर सब लफड़े-झगड़े।



हरा कलींदा बिना फाँक का, नारंगी टुकड़े-टुकड़े।४।


हरे रंग से रिश्ते गहरे, चाहे बर्मा पाकिस्ताँ,
अपनी मिट्टी से ना मतलब, मुँहबोली का हिन्दुस्ताँ।



कौम का नारा सबसे ऊपर, चाहे देश बने चिथड़े,
हरा कलींदा बिना फाँक का, नारंगी टुकड़े-टुकड़े।५।


हरा कलींदा बिना फाँक का, नारंगी टुकड़े-टुकड़े।
एक धर्म की गुरिया गूँथे, एक सयाना बन झगड़े।।


 


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