सृजनकार और कलाकार के एकाकार होने की प्रक्रिया सृजन करती है इंसानियत का! –

 मंजुल भारद्वाज 


कलाकार रंगमंच पर अपने अभिनय का निर्वहन करने के लिए सृजनकार के नाट्य पाठ को आत्मसात कर दर्शकों को सम्प्रेषित करते हैं. इसके लिए वो रंग विधान के सारे व्यवहार में दक्षता हासिल करते हैं. मसलन नाट्य दृष्टि, नाट्य पाठ का उद्देश्य, मंच विधान, दृश्यबंध, अपना शरीर, ताल और लय, सम्प्रेषणीय मुद्राएं, आवाज़ का आरोह-अवरोह,ध्वनियों की समझ को ध्यानास्त कर नाट्य पाठ को मंच पर जीवित कर दर्शकों से रूबरू करते हैं. कामयाब होते हैं..प्रसिद्ध होकर चाहने वालों की वाहवाही पाते हैं.. खुशहाल जीवन जीते हैं .. मैं आज इसके आगे बात करना चाहता हूँ ...


क्या कोई कलाकार नाट्य पाठ की चेतना की सुनसान पगडण्डी पर चलता है सृजनकार के साथ!.. चेतना के उद्बोधन और प्रदीप्त बिन्दुओं को साधता है... सृजन के किस गर्भ से निकला था नाट्य पाठ का लावा या कौन से पहाड़ का सीना चीर कर बही थी निर्मल जल की अमृत धारा या किस सागर की तलहटी में विचरण करते हुए उठा लाया था जीवन के अनमोल रत्न.. किस सदाबहार वन में प्रकृति की आधार शिला प्रेम को साध लिया था सृजनकार ने या किस कैलाश के शिखर पर बैठ साध लिया था जीवन के  विष को अपनी कला से पीने का अमोघ सूत्र ..क्या कलाकार सृजनकार की सृजन साधना से एकाकार होते हैं... सृजनकार और कलाकार के एकाकार होने की प्रक्रिया एक अद्भुत विस्मयकारी कलात्मक अनुभूति है जो सृजन करती है इंसानियत का .. जो बनाती है मनुष्य को इंसान और निर्माण करती है एक खूबसूरत दुनिया ..जिसकी दरकार है आज विश्व को ... !


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