अपने अंततोगत्वा की ओर..

मंजुल भारद्वाज  


दोराहे, चौराहे की 


भीड़ को पीछे छोड़ 


लक्ष्य के मार्ग पर 


जिंदगी आगे निकल जाती है 


छोड़ते हुए पद चिन्ह 


जो आज साथ हैं 


वो चेलेंगे इन पर 


या शायद अगली पीढ़ी 


लक्ष्य या मार्ग पर 


वही चलते हैं 


जो चेतना की आग में 


जलकर स्वयं को रोशन करते हैं 


बाकी भीड़,भेड़ और भ्रम में 


शरीर पर लदी जिंदगी को 


श्मशान पहुंचाते हैं 


भेड़,भ्रम की भीड़ 


रीढ़ में सिहरन पैदा करती है 


रूह को कपकापती है 


गांधी के पद चिन्हों पर 


दूर तक पसरे सन्नाटे को 


चीरते हुए नेतानुमा कुत्तों के 


भौंकने की आवाज़ आती है 


थोड़ी देर में यह कुत्ते 


अपने भेड़िये के असली रूप में 


अवतरित हो गांधी के 


पदचिन्हों को नोचते हैं 


मैं सुन्न खड़ा 


उस दृष्टि मार्ग पर 


ठंडी बयार में 


सुनसान पथ पर 


गांधी को चलते हुए 


देखता हूँ 


सन्नाटे की ख़ामोशी को 


गांधी की लाठी की आवाज़ तोड़ती है 


आज़ाद भारत की पुलिस 


गांधी की लाठी से 


शांतिपूर्ण प्रतिरोध के लिए 


गांधी को कूटती है 


गांधी हे राम हे राम 


कहते हुए चलते रहते हैं 


अपने पथ पर अकेले 


मैं राम नाम सत्य 


बोलता हुआ अपने 


अंततोगत्वा की ओर बढ़ जाता हूँ 


सन्नाटा अपने ही मौन के 


चीत्कार को सुन सुन कर 


सुन्न हो जाता है 


आज़ाद भारत में 


नोटबंदी का समर्थन करने 


वाली जनता की तरह!


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