तोड़ दे शोषण के सारे षड्यंत्र

अपने अंदर लावा जगा!
मंजुल भारद्वाज
सुन्न हो चुकी संवेदनाओं को जगा
नीली पड़ चुकी देह को जगा
अपने पैरों के छालों से बहते रक्त,
रक्तरंजित अपने पदचिन्हों को देख
फटी हथेली में मिट चुकी
लकीरों में तक़दीर को मत ढूंढ
न्याय की भीख माँगना बंद कर
न्यायधीश बन
तेरे हाथ में जो हथोडा है
उसे जर्जर हो चुकी
अपने ही मवाद में सड़ती
व्यवस्था पर चला
तोड़ दे शोषण के सारे षड्यंत्र
भेद रोटी के रहस्य को
अपने भीतर झांक
देख तू पृथ्वी है
तेरे अंदर आग है
तेरे अंदर लावा है ...
अपने अंदर लावा जगा!


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