बढ़ो बना दो, विश्व एक परिवार नारी रे...!
अन्तर्राष्ट्रीय दिवस (25 नवम्बर) पर विशेष लेख
महिलाओं के विरूद्ध हिंसा का उन्मूलन के लिए... अबला नहीं, बला सी ताकत, अपनी अद्भुत क्षमता पहचानो हे कल्याणी... बढ़ो बना दो, विश्व एक परिवार नारी रे...!
डा0 जगदीश गांधी
संयुक्त राष्ट्र संघ की घोषणा :- संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष 2000 में प्रतिवर्ष 25 नवम्बर को महिलाओं के विरूद्ध हिंसा के उन्मूलन के लिए अन्तर्राष्ट्रीय दिवस मनाने की घोषणा की है। इस घोषणा के अन्तर्गत सदस्य देशों की सरकारों, अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों तथा गैर-सरकारी संगठनों को महिलाओं के विरूद्ध होने वाली हिंसा के प्रति जन जागरण के लिए प्रेरित किया गया है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा महिलाओं के विरुद्ध हिंसा के उन्मूलन संबंधी घोषणापत्र में वर्णित है कि “महिलाओं के विरुद्ध हिंसा ऐतिहासिक तौर पर पुरुषों तथा महिलाओं के बीच असमान शक्ति संतुलन को ही दर्शाती है।” आज नारी उत्पीड़न, भ्रूण हत्या, रेप, हिंसा एक गंभीर सामाजिक समस्या बनती जा रही है। यह समस्या आज केवल भारत तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह समस्या वैश्विक स्तर की एक अन्तर्राष्ट्रीय समस्या बन गयी है जो कि अत्यन्त ही चिन्ता का विषय है। सिटी मोन्टेसरी स्कूल का वर्ल्ड युनिटी एजुकेशन डिपार्टमेन्ट इस गम्भीर विषय के समाधान खोजने के लिए पिछले पांच वर्षों से अंतर्राष्ट्रीय मीडिया सम्मेलन का सफलतापूर्वक आयोजन करता आ रहा है। इस वर्ष का विषय था - हिंसा से नारी मुक्ति! इस सम्मेलन के द्वारा देश-विदेश के मीडिया प्रमुख, शिक्षाविद्, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक कार्यकर्ता आदि एकमत से सहमत है कि इस समस्या का समाधान खोजने के लिए परिवार, स्कूल, समाज, शासन तथा मीडिया पांचों को मिलकर प्रयास करना होगा। इन
पांचों में स्कूल की भूमिका सबसे अधिक है क्योंकि मनुष्य के मस्तिष्क में शान्ति के विचार डालने की सबसे श्रेष्ठ
अवस्था बचपन है।
अंतर्राष्ट्रीय मीडिया सम्मेलन को आयोजित करने का उद्देश्य :- इस अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन को आयोजित करने का उद्देश्य महिलाओं के विरूद्ध होने वाली हिंसा को बेहतर एवं सही ढंग से समझना एवं उसके उपरान्त इस समस्या के संभावित समाधान पर विचार करना है। इस सम्मेलन के माध्यम से यह प्रयत्न किया गया कि इस समस्या की जड़ में जाकर ऐसे समाधान खोजे जायें जिन्हें कि स्कूलों में आसानी से लागू किया जा सके। इसके साथ ही ऐसे समाधानों की पहचान करने का भी प्रयास किया गया जो कि मीडिया एवं अन्य संस्थाओं (सरकारी एवं गैर सरकारी) के माध्यम से भी लागू किये जा सकें। अतः हम सबको मिलकर महिला उत्पीड़न के खिलाफ आवाज बुलन्द करना है। वर्ष 2012 में दिल्ली में जिस क्रूरता एवं पाशविकता के साथ एक 23 वर्षीय छात्रा के साथ सामूहिक बलात्कार की घटना हुई उसने न केवल अपने देश को बल्कि सारे विश्व को झकझोर कर रख दिया। लेकिन इस विषय पर सामने आए आक्रोश का इस्तेमाल क्या हम इस समस्या को हिंसा से परे जाकर समझने में भी कर सकते हैं? लड़कियों एवं महिलाओं के विरूद्ध होने वाली हिंसा का एक मुख्य कारण भेदभाव भी है। इस हिंसा का मूल कारण लैंगिक असमानता के साथ ही यह विश्वास भी है कि लड़के लड़कियों की अपेक्षा ज्यादा अनमोल होते हैं।
महिलाओं के प्रति लगातार बढ़ती हुई हिंसा :-भारत के नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो के आंकड़ों से स्पष्ट है कि महिलाओं के विरुद्ध प्रत्येक तीसरे मिनट एक अपराध घटित होता है। प्रत्येक 29वें मिनट किसी महिला के साथ बलात्कार होता है, प्रत्येक 77वें मिनट दहेज किसी महिला की मौत का कारण बनता है, तथा हर 9वें मिनट किसी महिला के पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा उसके प्रति क्रूर व्यवहार का परिचय दिया जाता है और यह सब तब हो रहा है जब देश में महिलाओं को घरेलू हिंसा के प्रति घरेलू हिंसा अधिनियम के अंतर्गत कानूनी संरक्षण प्राप्त है। एक लड़की के संपूर्ण जीवन-चक्र में हिंसा व्याप्त होती है, उसके जन्म के पूर्व लिंग पहचान हेतु किये जाने वाले गर्भपात से यह सिलसिला शुरू होता है और उसके जन्म के बाद कन्या भ्रूण हत्या से लेकर बाल विवाह तथा गुप्तांग क्षत-विक्षत करने जैसी विकृति भी हमें दिखाई पड़ती है, यह सिलसिला यहीं समाप्त नहीं होता, उसकी शिक्षा, स्वास्थ्य तथा रोजगार तक, यह भेदभाव निर्बाध गति से जारी रहता है।
भारत में कन्या शिशु के प्रति हिंसा तथा भेदभाव के कारण पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना :- देश में पितृसत्तात्मक घरेलू संरचना के तीन प्रमुख पहलू हैं जो किसी भी महिला की स्थिति को प्रभावित करते हैं : विवाह, (वैवाहिक या विवाहेत्तर) उत्पीड़न द्वारा सक्रिय भेदभाव तथा सीमित आर्थिक अवसरों के कारण आत्मनिर्भरता में कमी। इन सभी मामलों में शक्तिशाली पितृसत्तात्मक पारिवारिक संरचना तथा महिलाओं की सीमित होती क्षमताओं तथा कम होते सामाजिक प्रतिनिधित्व के बीच सीधा संबंध है, हालांकि यह स्थिति दक्षिण राज्यों की तुलना में उत्तरी राज्यों में ही अधिक व्याप्त है। इस प्रकार पोषण के मामले में लैंगिक भेदभाव तथा प्रजनन संबंधी निर्णयों में महिलाओं की सक्रिय भूमिका का अभाव भी घरेलू हिंसा का एक कारण माना जा सकता है।
दहेज प्रथा एक सामाजिक अपराध है :- भारत में घरेलू हिंसा का एक कारण प्रायः दहेज की मांग को माना जा सकता है। दहेज देना भी एक प्रकार से पितृसत्तात्मक संरचना का ही परिणाम है। दहेज तथा घरेलू हिंसा के बीच गहन संबंध हैं। यह एक ऐसी सांस्कृतिक प्रथा है जो भारत के कई समुदायों में प्रचलित है। महिला का परिवार जो धन, सामान तथा संपत्ति विवाह में देता है, शादी के बाद यह पति के स्वामित्व में मान ली जाती हैं। भारत में यह प्रथा आज भी जारी है, हालांकि 1961 से ही इसे प्रतिबंधित कर दिया गया है। विगत कुछ वर्षों में दहेज में दिये जाने वाले धन की मात्रा में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। दहेज समाज का कलंक है।
घरेलू हिंसा के मामले दर्ज करने में हिचकिचाहट :- घरेलू हिंसा की शिकार अधिकांश भारतीय महिलाएं ऐसे अपराधों के संबंध में अभियोग दर्ज कराने से हिचकती हैं। इस हिचकिचाहट के पीछे भी कारण पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना ही है, जो प्रायः देश के अधिकांश घरों में गहरे स्थापित है। यदि घरों में महिला उत्पीड़न या घरेलू हिंसा सामने आती है तो एक मिथ्याधारणा सामने आती है कि इन मामलों में गलती अवश्य महिला की ही होती है। मामले दर्ज करने में हिचकिचाहट इस बात से भी स्पष्ट है कि दर्ज आंकड़े घरेलू हिंसा के मामलों को वास्तविकता से काफी कम दर्शाते हैं।ं
घर-घर में दीवारें हैं, दीवारों से टकराकर गिरती है वह :- ऐसे क और पहलू भी हैं जो भारत में घरेलू हिंसा तथा लैंगिक असमानता में अंतर को सामने लाते हैं। इनमें सामाजिक-आर्थिक वर्ग, शैक्षिक स्तर तथा पितृसत्तात्मक ढांचे से परे पारिवारिक संरचना आदि प्रमुख हैं। वर्ष 1999 में अमेरिकी जर्नल ऑफ एपिडेमियोलॉजी में छपे एक अध्ययन में ऐसे तथाकथित “तनाव घटकों” की पहचान की गई थी जो क्षेत्र विशेष के कारकों से परे, घरेलू हिंसा की परिवर्तित होती दरों को समझने के लिहाज से महत्वपूर्ण है। घरों के भीतर तनाव के ये घटक निम्न शैक्षिक उपलब्धि, गरीबी, विवाह की कम उम्र, अधिक बच्चे होने के साथ-साथ विकास को सीमित करने वाले लैंगिक कारक आदि हैं।
समाधान क्या है? (1) सुरक्षात्मक उपाय :- (ए) विभिन्न मीडिया विभूतियों तथा लोकप्रिय सेलिब्रिटीज द्वारा जागरूकता अभियान, (बी) स्कूलों में लड़कियों के प्रति संवेदनशीलता विकसित करना, (सी) सशक्त महिला रोल मॉडलों की पहचान तथा
टी0वी0 कार्यक्रमों में महिलाओं का गरिमापूर्ण चित्रण, (डी) लड़कियों तथा महिलाओं हेतु आत्मरक्षा के कार्यक्रमों का संचालन, (ई) पुलिस के रवैये में सुधार आदि। (2) उपचारात्मक उपाय - (ए) कानूनों को और मजबूत बनाया जाय, (बी) स्ट कोर्ट के माध्यम से कानून को सख्ती से लागू करने की जरूरत तथा (सी) पीड़ित हेतु सहायता समूहों की स्थापना।
लोगों की मानसिकता को बदलने की जरूरत :- जहाँ एक ओर कानूनों को सख्त किया जाना चाहिये, वहीं यह भी जरूरी है कि कानूनों को और अधिक सख्ती से लागू भी किया जाय। साथ ही शिक्षा भी इस विषय में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है, इसमें दोनों-औपचारिक तथा घरों के भीतर की शिक्षा भी शामिल है। माता-पिता को लड़की और लड़के में कोई भेदभाव नहीं करना चाहिये। लड़कों में भी लड़कियों को समान समझने की भावना विकसित करने का प्रयास करना चाहिये। हाल के विरोध प्रदर्शनों ने बदलाव की हमारी उम्मींदों को जागृत तो किया है, लेकिन आज भी कुछ विसंगतियां हमारे बीच मौजूद हैं, जिन्हें समय रहते दूर करना ही होगा- हममें से कई लोग हैं जिन्होंने दिल्ली की उस पीड़ित छात्रा हेतु न्याय के लिए किये जा रहे विरोध प्रदर्शनों का समर्थन तो किया था, लेकिन यह भी सच है कि हम अपने जीवन में महिलाओं के साथ भेदभाव करते भी हैं। इस मामले में केवल पुरुषों को ही आत्मावलोकन करने की जरूरत नहीं है, महिलाएं भी इसमें शामिल हैं। इसलिए हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि महिलाओं के विरुद्ध हिंसा को केवल महिलाओं की समस्या के रूप में ही न देखा जाय बल्कि इसे व्यापक सामाजिक समस्या के रूप में देखा जाय।
लैंगिक उत्पीड़न और भेदभाव के खिलाफ एकजुट होने का समय आ गया है :- हाल ही में मीडिया पर दिखाई गईतथा सिविल सोसायटी संगठनों द्वारा सामने लाई गई कई दुःखद घटनाओं ने पूरे परिदृश्य को बदल कर रख दिया है। इसका परिणाम यह हुआ कि इस मुद्दे पर उन लोगों को कुछ करने पर विवश होना पड़ा है जो पहले इसकी अनदेखी किया करते थे। यह सही है कि ऐसे मुद्दे पर देश में हुए हालिया विरोध प्रदर्शन अप्रत्याशित थे। हमें आशा है कि यह एक निर्णायक बिन्दु साबित होगा और हमारे रवैये में समुचित परिवर्तन लाने के साथ ही कानून व्यवस्था में और भी अधिक सुधार संभव होगा। इसके परिणामस्वरूप लड़कियों तथा महिलाओं के साथ-साथ संपूर्ण समाज की स्थिति में गुणात्मक बदलाव हो सकेंगे। लैगिक दृष्टि से असमान सामाजिक व्यवस्था हमारी सामूहिक असफलता है।
यह पहल क्यों जरूरी है? एक बच्चे के लिये स्कूल, वास्तव में, बड़े होने, विकसित होने तथा जीवन के सबक सीखने का मैदान ही होता है। लेकिन सीएमएस का विश्वास है कि स्कूल की जिम्मेदारी बच्चों की शिक्षा तक ही सीमित नहीं होती। बल्कि स्कूल का कार्य बच्चे को शिक्षित करने के साथ-साथ उसके परिवार तथा पूरे समाज को भी शिक्षित एवं जागरूक करना होता है। एक प्रकाश स्तंभ की भांति स्कूल में संपूर्ण युग के घटनाक्रम के प्रति चिंता का भाव होना चाहिये और विश्व का सबसे बड़ा स्कूल होने के नाते सीएमएस लड़कियां तथा लड़कों को समान अवसर उपलब्ध कराने के लिए आवाज बुलंद करना अपनी नैतिक जिम्मेदारी समझता है, ताकि वे सर्वोत्तम चारित्रिक विशिष्टताओं को समाहित कर सकें। आंतरिक शांति के बिना बाहरी शारीरिक मजबूती किसी काम की नहीं। भीतरी शक्ति से यहाँ तात्पर्य बुद्धि की शक्ति और आंतरिक इच्छा व आध्यात्मिक भावनाओं की शक्ति से है। हमने नारी शक्ति का ठीक प्रकार आंकलन नहीं किया है। विश्व के जिन देशों ने महिलाओं को शक्ति को पहचाना है वह देश तेजी से चहुँमुखी विकास कर रहे हैं।
21वीं सदी में सारे विश्व में नारी शक्ति के अभूतपूर्व जागरण शुरूआत हो चुकी है :- विश्व की आधी आबादी महिलाएं विश्व की रीढ़ होती हैं। महिलाओं में भावनात्मक शक्ति तो होती ही है साथ ही वे आंतरिक तौर पर भी बहुत मजबूत होती हैं। किसी भी व्यक्ति में इन बातों का होना सबसे बड़ी मजबूती है। सारे विश्व में आज बेटियाँ विज्ञान, अर्थ व्यवस्था, प्रशासन, न्यायिक, मीडिया, राजनीति, अन्तरिक्ष, खेल, उद्योग, प्रबन्धन, कृषि, भूगर्भ विज्ञान, समाज सेवा, आध्यात्म, शिक्षा, चिकित्सा, तकनीकी, बैंकिग, सुरक्षा आदि सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों का बड़े ही बेहतर तथा योजनाबद्ध ढंग से नेतृत्व तथा निर्णय लेने की क्षमता से युक्त पदों पर असीन हैं। 21वीं सदी में सारे विश्व में नारी शक्ति के अभूतपूर्व जागरण की शुरूआत हो चुकी है। इसलिए हम यह पूरे विश्वास से कह सकते हैं कि एक माँ शिक्षित या अशिक्षित हो सकती है, परन्तु वह एक अच्छी शिक्षक है जिससे बेहतर स्नेह और देखभाल करने का पाठ और किसी से नहीं सीखा जा सकता है। नारी के नेतृत्व में दुनिया से युद्धों की समाप्ति हो जायेगी। क्योंकि कोई भी महिला का कोमल हृदय एवं संवेदना युद्ध में एक-दूसरे का खून बहाने के पक्ष में कभी नही होता है। महिलायें ही एक युद्धरहित एवं न्यायपूर्ण विश्व व्यवस्था का गठन करेंगी। विश्व भर के पुरूष वर्ग के समर्थन एवं सहयोग का भी वसुधा को कुटुम्ब बनाने के अभियान में सर्वाधिक श्रेय होगा।