तुम बिन अकेले जीना...
पुनरावृत्ति
अभिलाषा विनय
गुनगुनी याद ले तेरी मैं अकसर गुनगुनाती हूँ।
अकेलेपन में यूँ अकसर मैं हरदम मुस्कुराती हूँ।१।
कहाँ मुमकिन हुआ तुम बिन अकेले जिन्दगी जीना।
सहेजे तुमको अपने में कई दीपक जलाती हूँ।२।
कई सन्दर्भ जग उठते कई उन्वान मिल जाते।
सदा आवृत्ति में गुन कर तुम्हें दोहराती जाती हूँ।३।
अनोखे पुनरावृत्ति के भँवर तुम से बना लेती,
तुम्हारे संग मन ही मन घरौंदे नित सजाती हूँ।४।
अपरिमित ग़ुम से शब्दों से असीमित ढूँढ़ती रहती।
तुम्हारे रूप में अकसर उन्हें वापिस बुलाती हूँ।५।
सुरभि मलयज गुजरती है मुझे छूते हुए अकसर।
नये सोपान गढ़ मन में मुक्त भवितव्य पाती हूँ।६।