नाटक 'राजगति' राजनीतिक मल साफ़ करने की पहल
रंगचिन्तक मंजुल भारद्वाज का नाटक 'राजगति' राजनीतिक मल साफ़ करने की पहल है !
कला सिर्फ कला के लिए नहीं होती, कला का काम सिर्फ मनोरंजन करना नहीं होता, बल्कि कला का मूल कार्य वास्तव में सोये हुए इंसानों को जगाना है, उसे झकझोरना है, उसकी चेतना को चुनौती देना है, उसे स्वयं से प्रश्न करने का स्वभाव देना है.
राजगति 'थियेटर ऑफ़ रेलेवेंस' नाट्य सिद्दांत के जन्मदाता मंजुल भारद्वाज की नवीनतम प्रस्तुति है. कल उनकी कलायात्रा के 27 वर्ष पूरे हुए और 28 वाँ वर्ष शुरू हुआ.
मंजुल भारद्वाज सिर्फ नाट्यकार नहीं हैं. मंच पर सिर्फ नाटक प्रस्तुत कर देने को अपनी भूमिका की पूर्णाहुति नहीं मानते, बल्कि उनका मानना है कि कलाकार की भूमिका इंसान और समाज को सकारात्मक बदलाव के लिए प्रेरित करना, उसके सामने मौजूदा सामाजिक, सांस्कृतिक और कलात्मक चुनौतियों को अनावृत करना और उन चुनौतियों का मुकाबला करने का कलात्मक मार्ग देना भी है, ताकि हर इंसान नए और बेहतर समाज के निर्माण में अपनी भूमिका निभाये.
इंसान भी मूल तौर पर बाकी जीवों की तरह एक जीव है, जो जन्म लेता है, जबतक मौत नहीं आती, जीता है और जब मौत आती है, पंचतत्व में विलीन हो जाता है. लेकिन साहित्य, संगीत और कला इंसान को बाकी जीवों से अलग करते हैं. मंजुल की नाट्य प्रस्तुतियों में साहित्य, संगीत और कला का सुन्दर इस्तेमाल देखने को मिलता है.
राजगति कहने को एक राजनीतिक नाटक है, लेकिन वास्तव में यह जीवन के विभिन्न पहलुओं से आपका साक्षात्कार करवाता है और सत्य उद्घाटित करता है कि राजनीति व्यक्ति से अलग नहीं है. राजनीति हर व्यक्ति के जीवन को प्रभावित करती है, आगे बढ़ाती है या आगे बढ़ने से रोक दूसरे मार्ग पर भटकाती है.
राजगति की शुरुआत ही इस बिंदु से होती है, जहाँ आम आदमी राजनीति को गंदा मान इससे दूर रहना ही बेहतर समझता है. वह कहता है हम आम आदमी हैं, हम डॉक्टर हैं, इंजीनियर हैं, हमारा राजनीति से क्या वास्ता ?! हाँ, लेकिन वही आम आदमी मतदान को अपना कर्तव्य मानता है. वोट देना अपना अधिकार समझता है और वोट ज़रूर देना चाहता और और लोगों को भी वोट देने के लिए प्रेरित करता है.
नाटककार सवाल करता है, क्या वोट देना राजनीति नहीं है ? वोट किसे देना है ये समझना ज़रूरी नहीं है ? जब वोट देना अधिकार और कर्तव्य दोनों है, फिर आप राजनीति से दूर कैसे हो सकते हैं ?! इस तरह देखें तो आज जो राजनीतिक परिदृश्य हमारे सामने घट रहा है, उसका ज़िम्मेदार सिर्फ नेता नहीं, बल्कि आम आदमी भी है. वो जैसे व्यक्तियों को नेता चुनता है, वैसा ही व्यक्ति नेता बनकर उसके सामने उभरता है और वैसा ही राजकाज चलाता है.
राजगति के माध्यम से नाट्यकार मंजुल भारद्वाज ने भारतीय राजनीति के विभिन्न आयामों का पुनर्वालोकन करने का कार्य किया है. मार्क्स, गांधी, भगत सिंह और आम्बेडकर के चिंतन को कथन का मूल विषय बनाया है.
दुनिया मार्क्स को आधुनिक राजनीति का प्रणेता मानती है, लेकिन मंजुल का कहना है, मार्क्स का चिंतन अधूरा है. उन्होंने सत्ता परिवर्तन के मार्ग को तो आलोकित किया, लेकिन चरित्र निर्माण पर चुप रह गए. नतीजा हुआ दुनिया के विभिन्न देशों में सत्ता परिवर्तन तो हुए, लेकिन व्यवस्था नहीं बदली. शोषण की चक्की पूर्ववत चलती रही. शोषकों के चहरे बदलते रहे, लेकिन शोषितों के जीवन में कोई बदलाव नहीं आया. साम्यवाद या हो समाजवाद, राजतंत्र हो या लोकतंत्र सबकी गर्दन पर पूंजीवाद जा बैठता है. बदलाव के लिए हुए आन्दोलनों में व्यक्तियों का समूह लड़ता है, लेकिन अपेक्षित परिणाम के आते ही, समूह नेपथ्य में चला जाता है और व्यक्ति तथा व्यक्तिवाद चमक उठता है. और फिर व्यक्ति पूजा शुरू हो जाती है. और राजसत्ता पुनः अपने मूल स्वरुप में आ जाती है. सत्ता शोषकों के पक्ष में खड़ी दिखने लगती है, क्योंकि चरित्र निर्माण पर काम नहीं हुआ. और सन्देश यही देता है नाटक कि जबतक चरित्र निर्माण पर काम नहीं होगा, व्यवस्था नहीं बदलेगी. और शोषण विरोधी चरित्र निर्माण तबतक संभव नहीं है, जबतक सांस्कृतिक क्रान्ति नहीं होती. यानी साहित्य, संगीत और कला ही चरित्र निर्माण का काम करता है. इसलिए कला मर्मज्ञों, कलाकारों और साहित्यकारों की भूमिका बढ़ जाती है. उसे मनोरंजन या कला मात्र तक सीमित हो जाना समाज और देश की दुर्दशा का मूल कारण है.
जैसा कि मंजुल के नाटकों का क्राफ्ट है, मंजुल सिर्फ कहानियों के माध्यम से विषय वस्तु को रखने में यकीन नहीं करते. वह शब्दों और संवादों के माध्यम से दृश्य बनाते हैं. बयानों में बिंब गढ़ देते हैं और यह दृश्य मंच से कहीं अधिक दर्शकों के दिलों दिमाग में बनाते हैं. मंजुल अपना दृश्य बंध दर्शकों के सामने नहीं रखते, बल्कि वह दर्शकों की चेतना को अवसर देते हैं कि वह नाटक देखते हुए सक्रिय रहे और अपने अनुभव और समझ के अनुसार स्वयं दृश्य गढ़े. इस तरह एक नाटक मंच पर चल रहा होता है और अनेकानेक नाटक दर्शक दीर्घा में चल रहे होते हैं. इससे दर्शकों की सहभागिता बढ़ती है और दर्शकों की चेतना का स्वरूप भी जागृत और जवाबदेह बनता है. यह चरित्र निर्माण की प्रक्रिया है. मनुष्य के भीतर बैठा शोषक और शोषित दोनों एक साथ भावनाओं के सागर में डुबकी लगाता है और अपने मन के मैल धोता है.
स्क्रिप्ट इस तरह मंच पर अनवरत चलती रहती है कि एक पल को भी नाटक और दर्शक के बीच कोई व्यवधान नहीं आता. और नाटक जीवन की तरह निर्बाध ऊबड़ खाबड़ और समतल रास्तों से गुजरता अपने मुकाम तक पहुंचता है. और फिर मंजुल जब नाटक समाप्त होने के बाद दर्शकों को मंच पर आमंत्रित करते हैं, तो दर्शक दर्शक नहीं रहा जाता, वह किरदार से लेकर समीक्षक तक बन जाता है.
कलाकारों का आपसी तालमेल, अभिनय और पहनावा सहजता भरा था. इसलिए नए कलाकार हों या पुराने कलाकार सब अपना श्रेष्ठ योगदान करते दिखते हैं. खासकर सायली पावसकर और कोमल खामकर अपना श्रेष्ठ देती दिखती हैं. संवाद अदायगी और संप्रेषण दोनों अद्भुत बन उभरता है. और वैसी उनकी भाव भंगिमा है. अश्विनीं नांदेडकर नाट्य प्रस्तुति की धुरी हैं. मुख्य भूमिका में हैं ही, मंच पर सबको संभालती भी दिखती हैं. आवाज़ की सीमाओं को किस तरह इस्तेमाल किया जाय कि वह विविध अंदाज़ लिए श्रेष्ठ रूप धारण कर ले, यह अश्विनी से बाकी कलाकारों को सीखना चाहिए. कलाकारों का आंगिक अभिनय और वाचिक अभिनय दोनों में गहरा तालमेल दिखता है. बाकी कलाकार तुषार, स्वाति वाघ, सुरेखा, बेट्सी एंड्रूज, ईश्वरी भालेराव और प्रियंका कांबले भी प्रभावित करते हैं. निर्देशन कमाल का है. सहजता और दृष्टि से भरा.