पारिवारिक एकता ही समृद्धि
बालक परिवार में आंखों से जैसा देखता है तथा कानों से जैसा सुनता है वैसी ही बालक के अवचेतन मन में धारणा बनती जाती हैं। बालक की यही सोच आगे चलकर कार्य रूप में परिवर्तित होती है। परिवार में एकता व प्रेम या कलह, माता-पिता का अच्छा व्यवहार या बुरा व्यवहार जैसा बालक बचपन से देखता है वैसे उसके संस्कार ढलना शुरू हो जाते हैं। अतः प्रत्येक बालक को उसकी प्रथम पाठशाला में ही प्रेम, दया, एकता, करूणा आदि ईश्वरीय गुणों की शिक्षा दी जानी चाहिए। पारिवारिक एकता भौतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक तीनों क्षेत्रों में संतुलन तथा सब तरह की समृद्धि लाती है और पारिवारिक एकता ही विश्व एकता की आधारशिला है।
वर्तमान परिवेश में दादा-दादी का स्थान लेते टी.वी. सीरियल्स, हिंसा व सैक्स से भरे सिनेमा :- वर्तमान समय में परिवार शब्द का अर्थ केवल हम दो हमारे दो तक ही सीमित हुआ जान पड़ता हैं। परिवार में दादी-दादी, ताऊ- ताई, चाचा-चाची आदि जैसे शब्दों के उपयोग अब केवल पुराने समय की कहानियों को सुनाने के लिए ही किया जाता है। अब दादी और नानी
के द्वारा कहानियाँ सुनाने की घटना पुराने समय की बात जान पड़ती है। अब बच्चे टी0वी0 सीरियल्स, हिंसा व सैक्स से भरे सिनेमा आदि के साथ बड़े हो रहे हैं। जो संस्कार पहले दादा-दादी और माँ-बाप से परिवार के माध्यम से मिल रहे थे वे संस्कार अब टी0वी0 सीरियल्स, हिंसा व सैक्स से भरे सिनेमा के माध्यम से मिल रहे हैं। आज समाज आधुनिकता का दम्भ भरते हुए जिस ओर जा रहा है शायद उधर से लौटने का कोई रास्ता फिलहाल आता नहीं दिखाई देता।
बच्चों को मानव जाति के सभी गुण परिवार में सिखायें :- कहा गया है कि 'ना सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा' अर्थात वह सभा नहीं जहाँ बुजुर्ग न हो। इसी तरह वह परिवार भी नहीं जहाँ बुजुर्गों की छाया न हो। तीन पीढ़ियों अर्थात अतीत, वर्तमान तथा भविष्य को यथासंभव मिल-जुलकर साथ रहना चाहिए। इस स्वर्गिक वातावरण में बच्चों की देखरेख और बुजुर्गों की सेवा भी अच्छी होती है। परिवार में तीनों पीढ़ियों के बीच भावपूर्ण तथा न्यायपूर्ण संतुलन जरूरी है। ऐसे घरों के बच्चे संस्कारित तथा चरित्रवान होते हैं। बच्चों के साथ हंस-बोलकर तथा खेलकर बुजुर्ग प्रसन्न होते हैं और बच्चे अपने दादा-दादी, नाना-नानियों के लाड़-दुलार व परियों की काल्पनिक सुनहरे संसार में खोकर अपने को सुरक्षित और संतुष्ट महसूस करते हैं। हमें अपने बुजुर्गो के लिए एक दिन नहीं, तीन सौ पैंसठ दिन सोचना तथा यथाशक्ति कुछ न कुछ करते रहना हैं। तभी हमारे बच्चे भी हमारे साथ वैसा ही करेंगे।
पारिवारिक एकता सम्पन्नता की वाहक है :- किसी परिवार में जहाँ एकता है उस परिवार के सभी कार्यकलाप बहुत ही सुन्दर तरीके से चलते हैं, उस परिवार के सभी सदस्य अत्यधिक उन्नति करते हैं। संसार में वे सबसे अधिक समृद्धशाली बनते हैं। ऐसे परिवारों के आपसी सम्बन्ध व्यवस्थित होते हैं, वे सुख-शान्ति का उपभोग करते हैं, वे निर्विघ्न और उनकी स्थितियाँ सुनिश्चित होती है। वे सभी की प्रेरणा के स्रोत बन जाते हैं। ऐसा परिवार दिन-प्रतिदिन अपनी समृद्धि-सुख और अपने अटूट सम्मान में वृद्धि ही करता जाता है।
स्कूलों में पारिवारिक एकता तथा सारी वसुधा को कुटुम्ब बनाने वाली शिक्षा भी मिलनी चाहिए :- समाज में बढ़ रही घोर प्रतिस्पर्धा से नैतिक मूल्यों का पतन हो रहा है। संयुक्त परिवार टूटते चले जा रहे हैं और हम सभी केवल भौतिकता की इस अंधी आंधी में बहते चले जा रहे हैं। ऐसे में एक आधुनिक विद्यालय का यह सामाजिक उत्तरदायित्व है कि वे पारिवारिक
एकता तथा सारी वसुधा को एक कुटुम्ब बनाने जैसे चरित्र वाले बालकों का निर्माण करें। इसके लिए उन्हें आज के युग में सभी बच्चों को सारे धर्मो की मूल शिक्षाओं का ज्ञान देना चाहिए। बच्चों को बताना चाहिए कि ईश्वर एक है, धर्म एक है तथा मानव जाति एक है।
संस्कारयुक्त पारिवारिक वातावरण के निर्णय प्रभु की इच्छाओं के अनुकूल होते हैं :- बालक की प्रथम पाठशाला घर है। घरों में बहस के बजाय मीठी भाषा में तथा प्रेमपूर्ण वातावरण में आपसी परामर्श हो और परिवारजन जिस निष्कर्ष पर पहुँचे उसके बारे में यह सुनिश्चित कर लें कि वह परमात्मा को भी प्रसन्न करने वाला हो। कोई निर्णय ऐसा न हो जो परमात्मा की आध्यात्मिक शिक्षाओं के विरूद्ध हो। अनुशासित एवं संस्कारयुक्त पारिवारिक वातावरण में पले-बढ़े बालक ही विश्व शान्ति एवं विश्व एकता के स्वप्न को साकार कर विश्व का मार्गदर्शन कर सकते हैं। परिवार विश्व की सबसे छोटी एवं सशक्त इकाई है। बिना इस इकाई में एकता स्थापित हुए समाज, देश और विश्व में एकता की बात करना बेईमानी होगी। मेरा प्रबल विश्वास है कि यह लेख सारे विश्व के प्रत्येक परिवार को 'पारिवारिक एकता' के लिए रोजाना प्रयासरत तथा जागरूक रहने लिए प्रेरित करने में अवश्य सहायक होगा। डॉ. जगदीश गांधी