समाज एक श्राप

क्या है खता...



सुरेंद्र सैनी...


जाने अनजाने कुछ हुई खता 


चलती बात न चला पता 


मैं मानता रह गया 


वो गैर से गए जता 


कहीं कुछ खो सा गया 


मैं जैसे रहा लापता 


खुदा से दुआ मांगू 


क्यों हाथ मेरा काँपता 


क्या जुड़ा तेरे मेरे दरमियां 


कहीं तो है राब्ता 


मंजिलों तक हौसला 


मैं रहा कदम नापता 


नजरें चुराना क्या कर्म 


ये कैसी आधुनिकता 


समाज एक श्राप है "उड़ता"


कैसे बदलोगे  मानसिकता... 


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